बात करीब 8 साल से भी ज्यादा पुरानी है। पत्रकारिता जगत में मेरा शैशवावस्था था, ऐसा आप कह सकते हैं। इंटर कॉलेज के समय से ही मैं पार्ट टाइम में कस्बे के एक सहज जन सेवा केंद्र कम और साइबर कैफे ज़्यादा लगने वाली दुकान पर फ्री में कम्प्यूटर सीख रहा था। तब मेरे लिए कंप्यूटर के कीबोर्ड्स पर हाथ फेरना, और Google में कुछ सर्च करके देखना बड़ी उपलब्धि जैसी थी।
धीरे-धीरे मैं यह पूरा प्रतिष्ठान संभालने लगा था। मेरे मास्टर्स (एमए) तक और उसके एक-दो सालों तक इस साइबर कैफे पर एक्टिव था। मैं कम्प्यूटर सीख चुका था। उस समय राज्य में अखिलेश यादव की सरकार थी, राशनकार्ड का ऑनलाइन फार्म भरने का काम जोरों पर था। इससे कुछ जेब ख़र्च भी निकल आता था। कभी कभी बच्चों का जॉब ऑनलाईन फॉर्म भी भरता था। इससे मेरे पर्सनल ख़र्च के लिए मुझे घर से पैसे नहीं मांगने पड़ते थे।
कुछ सालों तक ऐसा ही चला। यहीं से ही पत्रकारिता का बीज भी मेरे मन में पनपा था। मैं फ्री समय में साइबर कैफ़े पर अपना ब्लॉग बनाता, अपने क़स्बे के नाम से न्यूज पॉर्टल डिजाइन करता, और फ्री एप्प डेवलपमेंट वेबसाइटों से मोबाइल एप्प बनाना सीख रहा था। मैंने तब अपने एक स्थानीय न्यूज पोर्टल का एक मोबाइल एप्प भी बनाया था, हालांकि, Google पॉलिसी में बदलाव और उसका प्रबंधन न करने के कारण अब वह Google Play Store से हटा दिया गया है।
उस समय मेरे जीवन में यही सब चल रहा था। मुझे सामाजिक मुद्दों, जतिवाद, समाजवाद, सामाजिक न्याय आदि की कम जानकारियां थीं। चूंकि एकेडमिक किताबों में हमें यह सब नहीं के बराबर पढ़ने को मिलती हैं।
जिस साइबर कैफे पर मैं बैठता था उसके मालिक एक पाण्डेय जी थे। काफी सीधे, सज्जन और सरल स्वभाव के थे। मुझपर भरोसा करते थे, मैं भी उनके भरोसे पर क़ायम रहने की भरसक कोशिश करता था। उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं थी, आज भी नहीं है। बल्कि उनका एहसान है मुझपर जिनकी वजह से मैं अपने शुरुआती दिनों में अपनी इंटरनेट दुनिया वाली जिज्ञासाओं को शांत कर पाया था।
पाण्डेय जी के पिता जी भी उनकी तरह ही थे, लेकिन थोड़ा स्वाभिमानी और सख्त स्वभाव के थे। लेकिन मुझसे हमेशा सम्मान और प्यार से बात करते थे। अब उनकी मृत्यु हो चुकी है। उनके साथ बीती यादें अब सिर्फ यादें ही हैं। किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि कोई उन्हें चाय पिलाने के लिए बुला ले, इतने खुद्दार थे कि वह सख़्ती से मना कर देते थे। लेकिन जब साइबर कैफे पर आते तो मेरा हाथ पकड़ कर कहते “चलो राजन चाय पिलाओ…”.
फिलहाल, मैं मुख्य विषय पर आता हूँ। अक़्सर पाण्डेय जी के घर भी मेरा आना-जाना था। उनकी छोटी फैमली थी। उनके घर में बूढ़ी मां, उनके पिता और ख़ुद पाण्डेय जी। बाकी उनकी पत्नी और दो बच्चे बाहर रहते थे। मैं यहां पाण्डेय परिवार के किसी भी सदस्य का नाम नहीं लिखना चाहता हूँ, क्योंकि उनके लिए मेरे मन में आज भी सम्मान और आदर है।
एक बार किसी काम से मैं उनके घर गया था। उस समय घर पर पाण्डेय जी थे और उनकी बृद्ध मां थीं। पाण्डेय जी को मैं चाचा कहता था। वह मुझे देखे तो अपनी मां को पानी लाने के लिए बोले, वह घर के अंदर गईं और एक स्टील का गिलास और एक प्लास्टिक का गिलास लेकर बाहर आईं। एक प्लेट में बिस्किट था, बाकी दोनों गिलासों में पानी भरा था।
स्टील का गिलास पाण्डेय जी के लिए था, और प्लास्टिक गिलास मेरे लिए था, यह मेरे लिए आम और स्वाभाविक समझ थी।
पाण्डेय जी अपनी मां के हाथ में जब दो तरह के गिलास देखे तो वह मां को टोके, बोले- “राजन के लिए भी स्टील के गिलास में पानी लाओ”.
मां बोलीं… “का बाबू ब्राह्मण के हाथ से अपना जूठा धुलवाओगे?”
मैं उनकी मां की बात सुनकर अपराध बोध जैसा महसूस करने लगा। मेरे लिए जतिवाद का कोई इल्म नहीं था। मुझे यही समझ थी कि जो पाण्डेय जी की मां जी कह रहीं हैं वह ठीक कह रहीं हैं, उनके घर के स्टील के गिलास में पानी पीऊंगा तो उन्हें ही वह गिलास धुलना पड़ेगा। जो अपराध होगा, ऐसी मेरी समझ थी तब।
पाण्डेय जी की मां जी की बात सुनकर मैं तुरंत प्लास्टिक के गिलास का पानी झट से पी लिया, जिससे उन्हें घर के अंदर जाकर स्टील का गिलास न लाना पड़े, और उन्हें मेरा जूठा गिलास न धोना पड़े। मैंने प्लास्टिक गिलास में पानी पीकर उस गिलास को दूर लेकर जाकर फेंका।
इस घटना के दिन भी मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि आज मेरे साथ क्या हुआ है। मैं हसी-ख़ुशी से उनके घर से लौटा उस दिन। किसी से कोई शिकायत नहीं की थी। मेरे लिए यह एक आम और सामान्य बात जैसी थी।
लेकिन अब, जब मैं दिल्ली स्थित डॉ. अंबेडकर जी की लीगेसी वाले द मूकनायक प्लेटफॉर्म के लिए बीते कई सालों से सहायक संपादक के रूप में काम कर रहा हूँ तब अतीत की भूली बिसरी यादों पर जोर देने पर चीजें थोड़ी स्पष्ट दिखने लगीं।
दलित, आदिवासी और पिछड़ों के हक, अधिकारों, अत्याचार पर मैंने कईयों रिपोर्ट्स लिखे हैं। फिर मैंने यह निर्णय किया कि एक बार मैं अपनी कहानी भी आपको बताऊं।
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