क्या ‘डिजिटल धर्म’ हमारी सोच पर कब्जा कर चुका है? जानिए कैसे टेक्नोलॉजी ने ली भगवान की जगह!

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धर्म और नई तकनीक — दोनों इंसानी असंतोष को शांत करने का वादा करते हैं, लेकिन उनके रास्ते और परिणाम अलग-अलग हैं। क्या तकनीक एक नया धर्म बनती जा रही है?

गार्डन ऑफ़ ईडन उर्फ़ साईं सोसायटी किताब के अनुसार, तकनीकी और धर्म के बीच कुछ असमानताएं देखने को मिलती हैं। मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो खुद को लेकर और अपने आसपास की दुनिया को लेकर हमेशा असन्तुष्ट रहता है। प्रकृति ने उसे अतिरिक्त दिमाग़ दिया है और उसी का यह असर है। धर्म और नई टेक्नोलॉजी, दोनों इस असन्तुष्टि के पैरों पर खड़े हैं। उनके बीच एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि धर्म एक तरफ उसे इस दुनिया से परे की अलौकिक दुनिया का आश्वासन् देता है और वर्चुअल यथार्थ अपने डिजिटल खिलौनों के जरिए यहीं, इस भौतिक जीवन में भी अलौकिक दुनिया बनाने की इच्छा रखता है। धर्म स्वयं को बदलकर उस अलौकिकता की ओर ले जाने का आश्वासन देता है और नई टेक्नोलॉजी इस दुनिया को ही बदलने का प्रयास करती है।

एक और महत्त्वपूर्ण अन्तर है, वह यह कि सामाजिकता अधिकांश धर्मों में एक महत्त्वपूर्ण अंग होती है। हिन्दू धर्म में सामाजिक रूप से कुछ धर्मकार्य होते हैं। यह सच है कि हिन्दू धर्म अधिक व्यक्तिकेन्द्रित है, उसमें बिना ऐसे कृत्य किये भी व्यक्तिगत स्तर पर अलौकिकता का सन्धान किया जा सकता है, लेकिन उसमें भी सामाजिकता है। उसके उलट, यह नई टेक्नॉलॉजी ऐसी कोई माँग नहीं करती। वह स्वयं को पूर्ण रूप से व्यक्तिकेन्द्रित बनाती है। इतनी कि अनेक अवसरों पर हम एक व्यक्ति न रहकर एक न्यूमेरिकल बन जाते हैं, एक नम्बर- चाहे वह आधार कार्ड नम्बर हो, पैन कार्ड नम्बर हो, जेल का कैदी नम्बर हो या गरीबी रेखा के नीचे वाले लोगों के लिए जारी किये गए पीले राशन कार्ड का नम्बर… ऐसे अनेक फ़र्क जरूर हैं, लेकिन धर्म और नई टेक्नॉलॉजी में समानता ही अधिक है।

पहले पहल लगता है कि यह नई तकनीक हमें अनगिनत विकल्प देती है, अनेक बातों में से चुनने की आजादी देती है, लेकिन वह आतादी हमेशा सीमित होती है, ‘अनगिनत’ नहीं होती। कम्प्यूटर पर ड्राईंग बनाते समय पहले चौबीस रंगों के विकल्प होते थे, फिर पाँच सौ बारह रंगों के बने और अब तो कुछ हजारों के होते हैं। लेकिन फिर भी वह विकल्प असली जैसा असीम नहीं है। असल में विकल्प किन-किन बातों का देना है, उसे आप कैसे चुनेंगे, यह कैसे तय होता है…? इसमें कोई भी निर्णय आपका नहीं होता।

इसी तरह उसमें वास्तविक शरीर से मुक्ति पाने का आभास होने के कारण उसमें किसी प्रकार की दैहिक व्याधियाँ नहीं होतीं। बीमारी, बुढ़ापा और दुःख की बात तो छोड़ ही दीजिए, मृत्यु जैसी वास्तविकता का भी यहाँ उल्लेख नहीं होता। ऐसा भी कुछ अटल सत्य इस मानवीय दुनिया में है, यही मानो इस आभासी यथार्थ में हम भूल जाते हैं! धर्म भी हमें या तो अमर मानता है या मरने के बाद स्वर्ग दिलाने का लालच दिखाता है।

लेकिन नई तकनीकी और धर्म दोनों भूल जाते हैं कि डिजिटल दुनिया हो या अलौकिक दुनिया, उनकी धारणा के लिए भौतिक दुनिया की बुनियाद जरूरी है, और मृत्यु नामक सत्य से मानवीय जीवन और यथार्थ अलग हो ही नहीं सकते। हम मर्त्य मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं और असन्तुष्टियों पर विजय पाने के लिए इन दोनों का आधार लेते रहते हैं।

हम उनके हाथ की कठपुतली बनते हैं। और ऐसा बन जाने का हमें एहसास भी नहीं रह गया है। बस अब, डिजिटल नामक नया धर्म आ चुका है, जो पहले वाले धर्म से ज्यादा घातक है क्योंकि वह हमें अधिक व्यक्तिकेन्द्रित बनाता है, खुद के प्रति मोहविष्ट करता है, वी बिकम मच मोर नार्सिसिस्टिक

इसके अलावा, इसमें इतनी तेजी से बदलाव हो जाते हैं कि क्या कहें! इसलिए उससे टकराते समय ‘हमें मानव बने रहना है या नहीं?’ यही मानो हर रोज हमें नये सिरे से सोचना पड़ता है। पहले की तरह, इन बातों से हमारा क्या नाता है, इसे एक बार निश्चित कर हम आजाद नहीं हो सकते। हम लगातार किसी न किसी नई चीज का सामना करते हैं, ऐसा वे आभास उत्पन्न करते हैं और हम उस चक्र में फँस जाते हैं। नये और पहले के बीच का यह एक और अन्तर है और इसकी वजह से जटिलता बढ़ती जा रही है।

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