क्यों बौद्ध धर्म ही भारत में असली लोकतंत्र ला सकता है! जानिए आंबेडकर की हैरान करने वाली सच्चाई

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आंबेडकर की नज़र में बौद्ध धर्म और लोकतंत्र: क्यों ब्राह्मणवाद से मुक्ति ही सामाजिक एकता की कुंजी है

धर्मान्तरण : आंबेडकर की धम्म यात्रा किताब के अनुसार, भारतरत्न बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने का मानना था कि बुद्ध कोई अन्य धार्मिक नेता नहीं थे। उन्होंने उस समय के ब्राह्मणवादी/ब्राह्मणवाद धर्म के सम्बन्ध में ‘क्रान्तिकारी रुख’ अपनाया था। उन्होंने वेदों को ज्ञान के अन्तिम स्रोत के रूप में खारिज कर दिया और ब्राह्मणों द्वारा बड़ी संख्या में आयोजित पशु बलि का विरोध किया। उन्होंने किसी तरह के भगवान तक पहुँचने के साधन के रूप में धर्म को बढ़ावा भी नहीं दिया। 

बुद्ध ने इसी कारण से चतुर्वर्ण को भी अस्वीकार कर दिया था। आंबेडकर ने तर्क दिया कि उनका धर्म लोकतंत्र के लिए सबसे उपयुक्त है। जाहिर है कि डॉ. आंबेडकर ने धर्मांतरण से पहले बौद्ध धर्म का सूक्ष्म अध्ययन किया था.

ब्राह्मणवादी धर्म और लोकतंत्र परस्पर विरोधी हैं। अगर हम लोकतंत्र चाहते हैं, तो चतुर्वर्ण को खत्म करना होगा। मेरा मानना है कि ‘चतुर्वर्ण के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए बुद्ध के दर्शन से स्यादा घातक कोई रसायन नहीं है। 

ब्राह्मणवाद पर आंबेडकर के विचार

आंबेडकर फिर उस विषय पर लौट आए जो 1920 के दशक से उनके दिल के क़रीब था— हिन्दू समाज की ‘आन्तरिक शक्ति’। अपने पहले दिये गए तर्क को दोहराते हुए उन्होंने इस आन्तरिक शक्ति की बात ‘समाज के सभी सदस्यों के बीच भाईचारे के रिश्तों से उत्पन्न होनेवाले समाज के द्रव्यमान’ के रूप में की। 

उन्होंने कहा कि इस मामले में हिन्दू समाज बुरी तरह से कमजोर हो गया है। यह एक ऐसे इंसान की तरह है जिसका ‘पेट फूला हुआ है, अंग सिकुड़े हुए हैं, गाल खिंचे हुए हैं, आँखें धँसो हुई हैं और कंकाल जैसा ढाँचा है।’ 

अगर इस इकाई को, जिसके पास ‘लोकतंत्र की गाड़ी’ चलाने की इच्छा तो थी, लेकिन ताक़त नहीं थी, ताक़त हासिल करनी थी, तो उसे सबसे पहले सदियों से जमा हुए ब्राह्मणवादी धर्म के ‘कीचड़’ से छुटकारा पाना था। एकमात्र ‘डॉक्टर’ जो यह काम कर सकता था, वह गौतम बुद्ध थे। उन्हें याद करना और उनकी ‘दवा’ का सेवन करना ही भारत में लोकतंत्र की स्थापना का एकमात्र तरीका था। 

इस तरह आंबेडकर ने उन सभी प्रमुख चिन्ताओं को जोडा, जिन्होंने 1942 तक उनके सार्वजनिक जीवन को निर्देशित किया था। बुद्ध उनके विचारों में एक केन्द्रीय स्थान पर आ गए, जो उनके बाद के लेखन और भाषणों में भरपूर रूप से परिलक्षित हुआ।’

बुद्ध जयंती पर आंबेडकर के भाषण

1942-1949 के मध्य बुद्ध जयंती मनाने से सम्बन्धित प्रमाण इंग्लिश और हिन्दी संकलनों में सम्भवतः प्रकाशित नहीं हैं। मई 1950 से जून 1956 के बीच दिल्ली, बंबई और सोपारा जैसे शहरों में 8 बार बुद्ध जयंती मनाई गई, जिनमें आंबेडकर ने अपने 20 वर्षों के विभिन्न धर्मों के अध्ययन का निचोड़ पेश किया। 

आंबेडकर के इन भाषणों, लेखों और इंटरव्यू का विश्लेषण किया जाए तो कई महत्त्वपूर्ण बातें स्पष्ट होती हैं। धर्मान्तरण की प्रक्रिया 1956 में पूरी हुई, लेकिन आंबेडकर अपने व्याख्यानों में कई बार अपने बचपन की स्मृतियों में जाते हैं, जब स्कूल पास करने के बाद दादा केलुस्कर ने उन्हें बुद्धचरित की एक कॉपी भेंट की थी और कहते हैं कि बौद्ध धर्म के प्रति उनका पागलपन बहुत पुराना है। 

चूँकि उनके प्रमुख श्रोता ज्यादातर अशिक्षित थे, इसलिए कई बार वे इतिहास का अति-सरलीकरण कर उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं। मसलन, भारत का इतिहास और कुछ नहीं बल्कि ब्राहमण और बौद्ध धर्म के बीच संघर्ष का इतिहास है। 

मुख्य विषय हैं ब्राह्मण और बौद्ध धर्म का तुलनात्मक अध्ययन और अपने श्रोता को साधारण भाषा में हिन्दू धर्म त्यागने की वजह समझाना है। जो कि उसमें समाहित वर्ण, जाति, अस्पृश्यता और उस पर आधारित श्रेणीगत असमानता है और इसकी जड़ें धर्मशास्त्रों में हैं। 

दूसरी तराफ बौद्ध धर्म समतामूलक है। बौद्ध क्रान्तिकारी थे और ब्राह्मण क्रान्ति विरोधी। बौद्ध धर्म और ब्राहमण धर्म में यही अन्तर था। 

विश्व के इतिहास में, बुद्ध स्वतंत्रता, समता, बन्धुत्व का सन्देश देनेवाले प्रथम व्यक्ति थे। आंबेडकर ने इस बात पर बार-बार बल दिया कि ‘पुरानी दुनिया’ की अपेक्षा ‘नई दुनिया’ को धर्म की स्यादा जरूरत है और धर्म की जरूरत अमीरों से ज्यादा गरीबों को है क्योंकि यह उन्हें अपने जीवन के लिए आशा प्रदान करता है। 

आंबेडकर ने धर्म की आवश्यकता को समझाते हुए कहा कि समाज को एकजुट रखने के लिए या तो क़ानून की मंजूरी होनी चाहिए या नैतिकता की मंजूरी होनी चाहिए। इनके बिना, समाज का टुकड़े-टुकड़े हो जाना निश्चित है। सभी समाजों में क़ानून बहुत छोटी भूमिका निभाता है। इसलिए नैतिकता के अर्थ में धर्म हर समाज में शासी सिद्धान्त बना रहना चाहिए।

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